शिवराम हरी राजगुरू, २४ अगस्त १९०८ में,पूना (महाराष्ट्र) के खेडा गाँव में जन्में थे। १५ साल की छोटी उम्र में ही क्रांति का अलख जन-जन तक पहुँचाने का बीडा उठाया और अपने को जननी जन्मभूमि पर होम कर दिया।
क्या था उस महानायक में कि वो अंग्रेजों के हर जुल्म को सहता हुआ देश की आजादी के लिए जीवन पर्यंत प्रयत्नरत रहा?शायद अब वो खून भारत कि धरती ने उपजाना बंद कर दिया है।
एक ऐसा महानायक,जो हमेशा कहता था "भारत माता को आजाद कराने के लिए हर लड़ाई में मैं सबसे आगे चलूँगा", और असेम्बली बम काण्ड में नही सम्मिलित किए जाने पर बहुत नाराज़ हुआ।
परन्तु भारत माता को शायद उससे बहुत प्यार था, तो ही तो उस महानायक कि ये इच्छा भी पूरी कर दी, ताकि वो देश कि आजादी के महासंग्राम में अन्य देशभक्तों से पीछे ना रहे।
और वो महानायक, २३ साल की अल्पायु में, २३ मार्च १९३१ को भगत सिंह और सुखदेव के साथ भारत माता के चरणों में ख़ुद को अर्पित करने के लिए, फांसी पर झूल गया।
उस महानायक के लिए निम्न पंक्तियाँ शायद चाँद को दिया दिखाने जैसा हो:
जाने कहाँ गए वो जोगी,
वतन की आज़ादी के रोगी,
कहते थे अपनी सारी आहों में,
मर जायेंगे वतन की राहों में॥
वतन की आज़ादी के रोगी,
कहते थे अपनी सारी आहों में,
मर जायेंगे वतन की राहों में॥
अगले अंक में उन महान देशभक्त की कहानी संकलित होने वाली है, जिसने भारत की आजादी के बाद भी जुल्म के ख़िलाफ़ आवाज उठाते हुए यानि अपने जीवन के २५ साल जेलों या कालेपानी में गुजारा।
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