आज मैं एक सन्दर्भ याद कराता हूँ, जिसे आपने बहुत से चलचित्रों में देखा या सुना होगा:
ये है भारत की भूखी नंगी जनता, इसकी याददाश्त बहुत ही कमज़ोर है, आज किसी से बहुत प्यार करेगी और कल उसे याद भी नही होगा की वो कौन था। ये कैसा प्यार?
यहाँ मैं एक दृश्य दिखलाता हूँ। दृश्य:
देश की आजादी के बाद एक व्यक्ति उस जगह जा रहा है जहाँ अमर शहीद भगत सिंह और उनके अन्य साथी कैद रहे थे अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान। इस व्यक्ति के भीतर उत्साह है वो जगह देखने की जहाँ वो महान शख्स आपने जीवन की कुछ घडियाँ बितायी था। वहाँ पहुँचने पर पता चलता है की वहाँ अस्पताल बन गया है। निराश हो, वो व्यक्ति कहता है की अच्छा वो जगह तो देख ही लेता हूँ , जहाँ सारे क्रांतिकारी बंद रहे थे। और जब वहाँ पहुँचता है तो देखता है की वो जगह, बैडमिन्टन का मैदान बन चुका है। वो आदमी शायद कुछ देख कर सोचने लगता है।
वहाँ उसे काफी देर से खड़े देख कर वहाँ खेल रहे खिलाड़ियों में से एक पूछता है: इस जगह में क्या कोई खास बात है ?
वो आदमी बताता है: हाँ, कभी यहाँ बनी जेल की कोठरियों में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त बंद रहे थे।
वो खिलाड़ी पूछता है: ये भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त कौन हैं?
वो आदमी कौन था, वो आदमी थे, कभी भगत सिंह के कंधे से कंधे लगा कर देश की आजादी के लिए सदा प्रयत्नरत, बटुकेश्वर दत्त।
अगर हम सब इतिहास को इतनी शिद्दत से भूलने का प्रयास करेंगे तो शायद हमारे भविष्य का लेखा जोखा तो आँखों के सामने नुमाया हो रहा है।इसी इतिहास से आंखें चार करने की तीव्र प्रवृति मुझे यहाँ तक ले आई है. और आगे इसी चिट्ठे में मैं एक धारावाहिक प्रकाशित कर रहा हूँ: "नमन है उनको"
शायद इस धारावाहिक से लोगों को उन शहीदों को नज़र करने में मदद मिले, और मेरी ओर से ये उन महान लोगों को श्रद्धांजली होगी।
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