Sunday, September 7

दुःख की लीला

कविमन बोले,
आखें खोले।
दुनिया परायी,
देखो वो आई।

डाई वो लायी,
थोडा मुस्कुरायी,
कवि सर गंजा,
हांथों से मंजा।

कवि मन घायल,
बजी उसकी पायल,
कविमन रोये,
क्लेश बोए।

कविमन उदास,
जाने कहाँ आस,
तभी पाई कविता,
जैसे कोई सरिता।

कविमन हर्षित,
अब नहीं व्यथित।

कविमन नाचे,
झूमे गाये,
खुशियाँ मनाये,
ग़म भूल जाये।

कविमन पाया,
जीवन हँसना,
दुःख पी लेना,
इनमे ना फँसना।

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