Sunday, April 11

!वो बचपन याद आता है!

आज भी मुझे अपना वो बचपन याद आता है,
खेलते थे जहाँ क्रिकेट, वो आँगन याद आता है..
बचपन के उन यारों को मैं भूला नहीं,
ये सावन के बाद पेड़ों से हट जाने वाला झूला नहीं...

नए खिलोने देख कर, पुराने भूलना याद आता है,
माँ कि लोरियां सुनके सो जाना याद आता है..
वो नानी कि परियों की कहानी मैं अभी भूला नहीं,
भोर में पंछियों का वो चहचहाना याद आता है..

वो शरारतों के बाद, डर जाना याद आता है,
माँ के पहलू में फिर, छुप जाना याद आता है..
वो आँगन की मिटटी की खुशबू अभी भूला नहीं,
ऐसा तो कोई नहीं, जो यादों में झूला नहीं..

वो छोटी छोटी बात पर, रूठ जाना याद आता है,
माँ का तब प्यार से, वो मानना याद आता है...
पापा की प्यार भरी मार अभी भूला नहीं,
आंसुओं में तब गीला होना याद आता है..

बात बात में दोस्तों से हुई लड़ाई याद है मुझे,
फिर ये सब भूल कर ली हर अंगड़ाई याद है मुझे..
वो बचपन की गलियों का हर तराना याद आता है,
दोस्ती का, नाराज़गी का हर फ़साना याद आता है....

Sunday, September 7

दुःख की लीला

कविमन बोले,
आखें खोले।
दुनिया परायी,
देखो वो आई।

डाई वो लायी,
थोडा मुस्कुरायी,
कवि सर गंजा,
हांथों से मंजा।

कवि मन घायल,
बजी उसकी पायल,
कविमन रोये,
क्लेश बोए।

कविमन उदास,
जाने कहाँ आस,
तभी पाई कविता,
जैसे कोई सरिता।

कविमन हर्षित,
अब नहीं व्यथित।

कविमन नाचे,
झूमे गाये,
खुशियाँ मनाये,
ग़म भूल जाये।

कविमन पाया,
जीवन हँसना,
दुःख पी लेना,
इनमे ना फँसना।

Tuesday, April 22

कैसी पढाई?

जैसे ये कल की ही बात हो, एक कनिष्ठ विद्यार्थी ने एक छोटी सी वार्ता में कहा : आपलोग पढ़ाई करते थे!
मैंने पूछा : ये हमारे बारे में अच्छी बात है या बुरी?
साथ में एक और कनिष्ठ विद्यार्थी बैठी थी, उसने थोड़ा नाराज़ होकर कहा : अच्छी बात है!

अब सन्दर्भ बता दूँ इनका:
मैं गुरगांव के एक व्यापार प्रबंधन विद्यालय से व्यापार प्रबंधन में परा-स्नातक की उपाधि प्राप्त कर रहा हूँ। ये किस्सा इसी पाठ्यक्रम में तीसरी छमाही का है ।

अब मेरे सवाल का कारण: मेरे अनुसार व्यापार प्रबंधन में पढ़ाई नाम का कुछ न होता है, न होना चाहिए। विद्यार्थियों को जीवित संदर्भ दिया जाना चाहिए जिससे कि वो वास्तविक रूप से वैसे संदर्भ का पूर्वाभ्यास कर सकें. हमारी शिक्षा प्रणाली कि यही खामी है कि ये तरीका बहुत ही कम संस्थानों में अपनाया जाता है, अन्यथा भारत में स्थिति वर्त्तमान से बिलकुल विपरीत होती, और ये भारतीय प्रतिभाओं के पक्ष में होती .

Saturday, April 5

नमन है उनको-४ प्रो. नंदकिशोर निगम

प्रोफेसर नन्द किशोर निगम, शायद ये नाम भी कोई नही जानता होगा, एक शख्स जिसने चन्द्रशेखर आजाद से बिना मिले, केवल उनके बारे में दोस्तों से सुनकर ही उनके प्रति अपने दिल में ऐसी श्रद्धा जगा ली, जो ताउम्र उनके दिल में रही।

प्रोफेसर निगम का जन्म ८ दिसम्बर १९०६ को दिल्ली में हुआ था। वो केवल दो वर्ष के थे जब माता पिता का देहांत हो गया। एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर लोग उन्हें जानते थे जिसने अपना भविष्य ख़ुद लिखा, अपने स्वावलंबन के दम पर।

प्रोफेसर निगम, जिसने इतिहास विषय से परास्नातक की परीक्षा दी, और ना केवल प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुए, बल्कि पूरे विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया था, और वो भी अंकों का नया कीर्तिमान स्थापित करते हुए।ये दिल्ली के हिंदू कालेज में इतिहास के प्राध्यापक हुए।

इसी समय, जब वे हिंदू कालेज में पढ़ा रहे थे, उनकी दोस्ती कुछ क्रांतिकारियों से हुई। चन्द्रशेखर आज़ाद के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि देशसेवा का जज्बा ख़ुद ही आ गया।

काकोरी काण्ड के गद्दारों को सज़ा देने का काम इन्हें ही मिला था, और उसे करने के दौरान ही पकड़े गए। पठन पाठन से इतने जुड़े व्यक्ति थे कि ये ही उनके पकड़े जाने का कारण बना। ४ दिसम्बर १९३० को पकडे गए । जेल में तरह तरह कि यातनाएं देकर भी अंग्रेज़ उनसे चन्द्रशेखर आजाद का पता नही पा सके। देश के लिए बार बार जेल के मेहमान बनते रहे। चन्द्रशेखर आज़ाद के इतने करीब थे कि उनपर एक किताब भी लिखी, आख़िर उनको गर्व था इतने महान क्रांतिकारी का विश्वास्भाजन बनने का।


वतन के लिए जीना है,
वतन के लिए मरना है।
इसके सिवा मेरे दोस्त,
और भला क्या करना है॥


इस महान देशभक्त के लिए उपर्युक्त पंक्तियाँ शायद ऐसे हैं जैसे क्षीरसागर में एक लोटा पानी डाला जा रहा हो।


अगले अंक में उस वीरांगना के परिचय के लिए एक छोटा सा लेख जिसने अपने पति के कदम से कदम मिलकर देश सेवा का बीडा उठाया और उसे ताउम्र निभाया।

Monday, March 31

नमन है उनको-३ (शिव वर्मा)

शिव वर्मा, हाँ यही नाम था उस शख्स का, जो भगत सिंह के समूह का एक विश्वसनीय सदस्य था।जब भगत सिंह वगैरह को फांसी की सज़ा हुई , उस समय इनको उम्रकैद की सज़ा हुई।
भगत सिंह ने अपनी शहादत के पहले, शिव वर्मा से हुई आखिरी मुलाकात में उनसे कहा था, जिसकी कुछ पंक्तियाँ शायद ऐसे थीं-"हमलोग तो आजादी के इस संघर्ष में अपनी लड़ाई लड़ते हुए अब अपने प्राण त्याग देंगे, पर तुम जैसे मेरे साथियों का काम बहुत ही जटिल होने वाला है। यह काम है आजाद भारत में भी जुल्मों और ग़लत बातों के ख़िलाफ़ लड़ते रहना। "
इस बात पर शिव वर्मा ने वचन दिया कि वो ताउम्र अपने देश में जुल्मों और ग़लत बातों के ख़िलाफ़ लडेंगे, और उस महान आदमी ने ऐसा किया भी।आज की दुनिया में एक भिखारी को रोटी देने के समय भी लोग उससे फायदा खोजते हैं, वो महान देशभक्त देश और देशवासियों के हक के लिए लड़ाई लड़ा और इस लड़ाई में उसे कांग्रेसी सरकार ने, जो देशभक्ति का ठेका लेकर सत्ता के गलियारे में पहुँची थी, १९४७, १९६२ और १९६४ में जेल भेजा।
इस तरह उस महान देशभक्त ने अपने जीवन के २५ साल देश सेवा के लिए जेल के अंदर बिताये।
इस महान शख्स कि मृत्यु १० फरवरी १९९७ में हुई। शायद देश के नौजवान उस समय विदेशियों के तौर- तरीकों की नक़ल करने में लगे हुए थे, और उनसे उन्हें ये समय ना मिला हो कि ये देख सकें की एक महान देशभक्त परम धाम की ओर प्रस्थान कर रहा है॥

अपने लिए जीना है क्या जीना,
देश के लिए मरना ही है मरना।
अगर देशसेवा ना कर सके तो,
इस जवानी का क्या करना॥
ऐसे महान शख्स के बारे में शायद उपर्युक्त पंक्तियाँ कुछ ऐसे हों जैसे एक बहुत ही अमीर सेठ को एक रूपये का चन्दा। पर शायद अभी शब्द ही धोखा दे रहे हैं।


अगले अंक में उस महान देशभक्त की कहानी जिसने अपने शिक्षक की नौकरी केवल इसलिए छोड़ दी की वो चंद्र शेखर आज़ाद का दोस्त ओर साथी बनना चाहता था।